नेहरू क्यों चाहते थे चीफ जस्टिस का इस्तीफा, सरदार पटेल ने क्यों रोका?

कुछ भी नया नहीं है. कार्यपालिका और न्यायपालिका बीच पहले भी खींचतान चली है. पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के वक्त से. संविधान लागू होने के फौरन बाद से. एक मामले में तो ठीक उसके पहले भी. तब प्रधानमंत्री नेहरू सुप्रीम कोर्ट के पहले चीफ जस्टिस हरि लाल जेसिकदास कानिया का इस्तीफा चाहते थे. फिर सरदार पटेल के समझाने से उन्होंने अपना इरादा बदला. इन दिनों सुप्रीम कोर्ट के तमिलनाडु के गवर्नर मामले में दिए फैसले और वक्फ कानून के कुछ प्रावधानों को अंतरिम तौर पर स्थगित रखने के आदेश के कारण बयानों की सरगर्मी है.
बेशक सरकार और सत्तादल खामोश हैं लेकिन उसके कुछ समर्थक न्यायपालिका को लेकर खासे मुखर हैं. इस मौके पर पढ़िए मद्रास हाई कोर्ट में एक जज की नियुक्ति को लेकर तत्कालीन चीफ जस्टिस कानिया और प्रधानमंत्री नेहरू के बीच मतभेद का वो किस्सा जिसमें खिन्न नेहरू चीफ जस्टिस से इस्तीफा चाहते थे.
कुछ नया जोड़िए लेकिन पुराने ढांचे को बदले बिना
सुप्रीम कोर्ट के पहले चीफ जस्टिस हरिलाल जेसिकदास कानिया ने संविधान लागू होने के बाद 28 जनवरी 1950 को पदभार ग्रहण किया था. इसके पहले 14 अगस्त 1947 से वे फेडरल कोर्ट ऑफ इंडिया के चीफ जस्टिस के तौर पर कार्यरत थे. 1949 में संविधान सभा की बहस में पंडित नेहरू ने ऐसी न्यायपालिका की आवश्यकता पर जोर दिया था, जो कार्यपालिका के रास्ते में आए उसके खिलाफ खड़ी हो जाए. उन्हीं दिनों जस्टिस कानिया ने ब्रिटिशों द्वारा छोड़े गए शक्तियों के पृथक्करण मॉडल की प्रशंसा करते हुए कहा था कि इसमें संदेह नहीं कि यहां थोड़ा गारा गिर रहा है. थोड़ी ईंट निकल रही है. लेकिन इस इमारत में हस्तक्षेप की कोशिश करके इसे नष्ट न करें. आप इसकी मरम्मत कर सकते हैं. इसमें कुछ जोड़ सकते हैं और बिना पूरी संरचना नष्ट किए कुछ हद तक बदल सकते हैं.
न्यायपालिका में राजनीतिक हस्तक्षेप!
इसके पहले 1948 में एक रात्रि भोज के दौरान जस्टिस कानिया ने पंडित नेहरू से पूर्वी पंजाब हाई कोर्ट की नियुक्तियों में बढ़ते राजनीतिक हस्तक्षेप पर अपनी चिंता जाहिर की थी. जस्टिस कानिया ने उनसे कहा था कि न्यायपालिका का पतन शुरू हो गया है. बाद में पंडित नेहरू ने सरदार पटेल को जस्टिस कानिया की चिंताओं के हवाले से लिखा कि अगर कुछ कदम जल्दी नहीं उठाए गए तो हमारी न्यायपालिका में बहुत से दोष आ जाएंगे. लेकिन मद्रास हाई कोर्ट में एक जज की नियुक्ति के सवाल पर पंडित नेहरू और जस्टिस कानिया के मतभेद इतने गहरे हो गए कि नेहरू को वे चीफ जस्टिस के पद के लिए अनुपयुक्त प्रतीत होने लगे.
जस्टिस कानिया के एतराज से नेहरू नाराज
केंद्र सरकार ने जस्टिस बशीर अहमद का नाम मद्रास हाई कोर्ट के स्थाई जज के लिए प्रस्तावित किया था. चीफ जस्टिस कानिया ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया. जब यह फाइल पंडित नेहरू के पास पहुंची तो वे गुस्से में आ गए. रफीक ज़करिया ने अपनी किताब “सरदार पटेल तथा भारतीय मुसलमान” में इस प्रसंग का जिक्र करते हुए लिखा है, “गृहमंत्री सरदार पटेल जिनके अंतर्गत यह नियुक्तियां आती थीं, को नेहरू ने 23 जनवरी 1950 को लिखा कि इस तरह का गलत व्यवहार करने वाला व्यक्ति क्या भारत की न्यायपालिका का मुखिया होने लायक है?
नेहरू ने यह भी लिखा, “वे इस बारे में गवर्नर जनरल राजा जी से बात कर चुके हैं और वे मुझसे सहमत हैं. इन तथ्यों को देखते हुए हमें मुख्य न्यायाधीश कानिया को त्यागपत्र देने के लिए कहना चाहिए. उन्हें भारत के सर्वोच्च न्यायालय का स्थायी प्रधान न्यायाधीश बनाना खतरनाक होगा.”
फिर भी बशीर अहमद बने जज
सरदार पटेल ने पंडित नेहरू के पत्र का उसी दिन उत्तर देते हुए अवगत कराया कि जस्टिस कानिया की असहमति को दरकिनार करते हुए उन्होंने होम सेक्रेटरी एच.वी. आर. अयंगार को जस्टिस बशीर अहमद की नियुक्ति के लिख दिया है. पटेल ने जस्टिस कानिया के प्रश्न पर नेहरू के विचारों से सहमति व्यक्त करते हुए लिखा कि मैने जस्टिस कानिया को टेलीफोन पर बता दिया है कि इस समय जस्टिस बशीर अहमद के नाम की अस्वीकृति साम्प्रदायिक नजरिए से परखी जाएगी. हालांकि, पटेल ने जस्टिस कानिया के विरुद्ध किसी कदम उठाने से बचने की नेहरू को सलाह दी.