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बाजीराव ने कैसे मुगलों की कमर तोड़ी? पहली ही जीत से लहराया परचम, कभी नहीं हारे जंग

वे एक महान योद्धा थे. कुशल रणनीतिकार थे. बड़े-बड़े सूरमा उनके सामने पानी मांगते थे. जिस उम्र में आज के किशोर पड़ोसी के बारे में भी न के बराबर जानते हैं, वे राज दरबार में पिता के साथ शिरकत करते. रणनीति और राजनीति के कौशल पर होती चर्चा को आत्मसात करते. उसी का नतीजा यह रहा है कि महज 20 वर्ष की उम्र में वे पेशवा बन गए. पिता के निधन के बाद उन्हें यह जिम्मेदारी छत्रपति शाहू जी महराज ने सौंपी. फिर तो उन्होंने जो करतब दिखाए, उनके जौहर की ध्वनि सुदूर सुनी जाने लगी. इसी के साथ एक ऐसी परंपरा पड़ी जो न पहले कभी थी और न आज तक सुनी गई. उसके बाद इसी परिवार के हाथों में मराठा साम्राज्य के पेशवा का महत्वपूर्ण पद रहा.

 

जी हां, यहां बात हो रही है बालाजी बाजीराव पेशवा की, जिनके पिता बालाजी विश्वनाथ भी पेशवा थे. इस वीर बांकुरे का पूरा नाम बाजीराव बालाजी भट्ट था, जो बाजीराव प्रथम के नाम से पूरी दुनिया में मशहूर हुए.

 

पहली ही जंग में जीतकर लहराया परचम

बाजीराव जीवन-पर्यंत एक बहादुर की तरह लड़ते रहे. वे एक ऐसे योद्धा थे जो कभी हारे ही नहीं. मुगलों की तो उन्होंने कमर तोड़ दी. उन्होंने पहला युद्ध नासिर जंग के खिलाफ लड़ा और विजयी रहे. यह युद्ध औरंगाबाद के पास हुआ. हार का स्वाद चखने को जब नासिर जंग भागने लगा तो बाजीराव और उनके वीर जवानों ने उसे घेर लिया. फिर बाजीराव के साथ हुए समझौते में खरगौन और हंड़िया मराठा शासकों के पास आ गया. पहले ही युद्ध में मिली इस कामयाबी के बाद मराठा राजदरबार से लेकर पूरे राज्य में बाजीराव का कद बढ़ता गया. वे अपने फैसलों की वजह से दिन-ब-दिन लोकप्रिय होते गए.

 

मराठा साम्राज्य के विस्तार और हिन्दू योद्धा के रूप में हैं उनकी यादें

बाजीराव उत्साह से भरे हुए थे. युद्ध-कौशल उन्हें विरासत में पिता से मिला था. ट्रेनिंग उन्होंने बचपन से ही लेना शुरू कर दिया. जब वे मराठा साम्राज्य के पेशवा नियुक्त हुए तो उनका हर कौशल निखरता गया. उन्होंने दो काम बड़ी मजबूती से किये. एक मराठा साम्राज्य का विस्तार और दूसरा हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अनेक प्रयास. इतिहास में उन्हें हिन्दू धर्म की पुनर्स्थापना के लिए भी याद किया जाता है. जब वे पेशवा बने तो भारत में मुगल तो सक्रिय थे ही, पुर्तगलियों और अंग्रेजों का भी दबाव बढ़ने लगा था. बावजूद इसके न तो वे डरे और न ही डिगे. अपने बनाए मार्ग पर चलते हुए मराठा साम्राज्य की नीतियों के मुताबिक ताबड़तोड़ फैसले करते. युद्ध लड़ते और जीतते रहे. उन्होंने अपने इसी कौशल और रणनीति की वजह से मराठा साम्राज्य का विस्तार उत्तर भारत तक हुआ.

 

मराठा समुदाय में बेहद सम्मान से देखे जाते हैं बाजीराव

बाजीराव को आज भी मराठा समुदाय बहुत सम्मान से देखता है. 18 अगस्त साल 1700 को उनका जन्म हुआ मतलब 325 साल पूर्व. महज 40 साल की उम्र में 28 अप्रैल 1740 को उन्होंने दुनिया छोड़ दी. बावजूद इसके उनका इतिहास बेहद गौरवशाली है. मराठा आज भी उनके गुणगान करते हुए भावुक हो जाते हैं. उन्होंने पालखी का युद्ध जीता. इसमें मुगल हारे और मराठा साम्राज्य का विस्तार दक्षिण भारत में हुआ. मालवा पर विजय के लिए उन्हें लगभग दो वर्ष लड़ना पड़ा. यह युद्ध 1729 से 31 तक चला. मुगल यहां भी हारे और बाजीराव ने मराठा साम्राज्य का विस्तार उत्तर भारत में किया. साल 1737 में वे भोपाल पर हमला कर बैठे. यहां मुगल सेना को न केवल हराया बल्कि संधि कर मध्य भारत में भी मराठा साम्राज्य की स्थापना को बल दिया. इसी साल उन्होंने दिल्ली पर भी हमला बोल दिया और मुगलों को हिला दिया.

 

घुड़सवार सेना और गुरिल्ला युद्ध उनके महत्वपूर्ण अस्त्र

बाजीराव की सेना में यूँ तो बहुत सारे विंग थे लेकिन घुड़सवारों का हिस्सा बहुत प्रभावी और तेज था. वे खुद भी बहुत शानदार घुड़सवार थे. इसी वजह से जब तक दुश्मन सेना कुछ नया सोचती उनकी यह सेना पहुंचकर उसके इरादे खत्म कर देती. गुरिल्ला युद्ध उनका एक और अस्त्र था जो मुगल सेना पर बेहद कारगर साबित हुआ. वे दुश्मन सेना को इसी कौशल से टुकड़ों में बांट देते और फिर घेरकर जीत लेते. उनकी ताकत एकत्र ही नहीं हो पाती. वे दुश्मन की कमजोरियों पर हाथ रखते थे. सीधे आक्रमण से बचते थे. इससे विरोधी कमजोर हो जाता और वे जीत जाते.

 

प्रशासनिक कौशल का अद्भुत नमूना थे बाजीराव

बाजीराव केवल युद्ध जीतने में ही माहिर नहीं थे, पेशवा के रूप में वे मराठा साम्राज्य की आर्थिक स्थित ठीक रखने को लेकर भी अनेक प्रशासनिक उपाय करते हुए देखे जाते. कर संग्रह सुधार से लेकर उनकी प्रशासनिक कौशल की वजह से जनता में मराठा साम्राज्य लोकप्रिय था. अफसरों को जनता की मदद के लिए जाना जाता था. लगातार युद्धों में व्यस्त रहने की वजह से वे सेहत के प्रति कुछ लापरवाह दिखते थे. अपने जुनून की वजह से कई बार रोगों को उन्होंने इग्नोर किया. इसी वजह से अज्ञात बुखार की वजह से चार-पांच दिन के अंतराल में 28 अप्रैल 1740 को उनका निधन हो गया. मध्य प्रदेश के खंडवा जिले के रावरखेड़ी नाम कि जगह पर उन्होंने अंतिम सांस ली. नर्मदा नदी के तट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया. वहीं उनका स्मारक भी बना हुआ है.

 

मस्तानी को परिवार ने बहू के रूप में कभी स्वीकार नहीं किया

काशी बाई से उनका पहला विवाह हुआ था. बाद में युद्ध के दौरान वे राजा छत्रसाल की मदद के इरादे से बुंदेलखंड पहुंचे. यहीं उनकी मुलाकात मस्तानी से हुई. पहली ही नजर में दोनों एक-दूसरे को दिल दे बैठे. विवाह तक कर लिया. लेकिन उनकी पहली पत्नी काशी बाई और परिवार ने मस्तानी को स्वीकार नहीं किया. इस वजह से उनके प्रेम में अनेक बाधाएं आईं. विवाह के बाद भी ये दोनों प्रेमी कभी सुकून से एक साथ न रह पाए. विवाह के बावजूद भले ही बाजीराव-मस्तानी का प्रेम परवान न चढ़ा लेकिन भारतीय इतिहास की एक अनूठी प्रेम गाथा के रूप में दर्ज है.

 

कहा जाता है कि निधन की सूचना के बाद मस्तानी ने जहर कहकर जान दे दी. इतिहास में पढ़ने को मिलता है कि बाजीराव ने पुणे में एक शाही महल बनवाया जिसमें मस्तानी रहती थीं. यह महल आज राजा दिनकर केलकर म्यूजियम के नाम से जाना जाता है. इन दोनों के एक पुत्र भी था. नाम था शमशेर बहादुर पेशवा जो पानीपत के युद्ध में शामिल हुआ. घायल होने के बाद निधन हो गया. मस्तानी खुद बेहतरीन घुड़सवार थीं. तलवारबाजी एवं धनुष-बाण का शौक था, जो बाजीराव के आकर्षण का एक कारण बने, खूबसूरत तो खैर थी हीं.

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